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यु॒ष्मोतो॒ विप्रो॑ मरुतः शत॒स्वी यु॒ष्मोतो॒ अर्वा॒ सहु॑रिः सह॒स्री। यु॒ष्मोतः॑ स॒म्राळु॒त ह॑न्ति वृ॒त्रं प्र तद्वो॑ अस्तु धूतयो दे॒ष्णम् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuṣmoto vipro marutaḥ śatasvī yuṣmoto arvā sahuriḥ sahasrī | yuṣmotaḥ samrāḻ uta hanti vṛtram pra tad vo astu dhūtayo deṣṇam ||

पद पाठ

यु॒ष्माऽऊ॑तः। विप्रः॑। म॒रु॒तः॒। श॒त॒स्वी। यु॒ष्माऽऊ॑तः। अर्वा॑। सहु॑रिः। स॒ह॒स्री। यु॒ष्माऽऊ॑तः। स॒म्ऽराट्। उ॒त। ह॒न्ति॒। वृ॒त्रम्। प्र। तत्। वः॒। अ॒स्तु॒। धू॒त॒यः॒। दे॒ष्णम् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:58» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किससे रक्षित मनुष्य कैसे होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धूतयः) कम्पानेवाले (मरुतः) प्राणों के सदृश प्रिय करनेवाले विद्वान् जनो ! जो (युष्मोतः) आप लोगों से रक्षा किया (विप्रः) बुद्धिमान् जन (शतस्वी) असंख्य धनवाला (युष्मोतः) आप लोगों से पालन किया गया (अर्वा) घोड़े के सामन (सहुरिः) सहनशील (सहस्री) असंख्यात उत्तम मनुष्य वा पदार्थ जिसके वह (उत) और (युष्मोतः) आप लोगों से उत्तम प्रकार रक्षा किया गया (सम्राट्) उत्तम प्रकाशित सूर्य्य के समान वर्त्तमान चक्रवर्ती राजा (वृत्रम्) मेघ को जैसे सूर्य वैसे शत्रुओं का (हन्ति) नाश करता है (तत्) वह (देष्णम्) देने योग्य दान (वः) आप लोगों के लिये (प्र, अस्तु) हो अर्थात् आप का दिया हुआ समस्त है, सो आपका विख्यात हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे प्राण, शरीर आदि सब की रक्षा करके सुख को प्राप्त कराते हैं, वैसे ही विद्वान् जन शरीर, आत्मा, बल और अवस्था की रक्षा कर के सब को आनन्द देते हैं, उनकी रक्षा के बिना कोई भी चक्रवर्ती राजा होने को योग्य नहीं होता, तिस से ये सब काल में सत्कार करने योग्य होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

केन रक्षिता मनुष्याः कीदृशा भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे धूतयो मरुतो ! यं युष्मोतो विप्रः शतस्वी युष्मोतोऽर्वेव सहुरिः सहस्र्युत युष्मोतः सम्राड् वृत्रमिव शत्रून् हन्ति तद्देष्णं वः प्रास्तु ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युष्मोतः) युष्माभी रक्षितः (विप्रः) मेधावी (मरुतः) प्राणा इव प्रियकरा विद्वांसः (शतस्वी) शतमसंख्यं स्वं धनं विद्यते यस्य सः (युष्मोतः) युष्माभिः पालितः (अर्वा) अर्वेव अश्व इव (सहुरिः) सहनशीलः (सहस्री) सहस्राण्यसंख्याता उत्तममनुष्याः पदार्था वा विद्यन्ते यस्य सः (युष्मोतः) युष्माभिः संरक्षितः (सम्राट्) सः सूर्यः सम्यग्राजते तद्वद्वर्तमानश्चक्रवर्ती राजा (उत) (हन्ति) (वृत्रम्) मेघम् (प्र) (तत्) (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) (धूतयः) कम्पयितारः (देष्णम्) दातुं योग्यं धनम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा प्राणः शरीरादिकं सर्वं रक्षयित्वा सुखं प्रापयन्ति तथैव विद्वांसः शरीरात्मबलायूंषि रक्षयित्वा सर्वानानन्दयन्ति नैतेषां रक्षया विना कोऽपि सम्राड् भवितुमर्हति तस्मादेते सर्वदा सत्कर्तव्यास्सन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे प्राण, शरीर इत्यादी सर्वांचे रक्षण करतात व सुख देतात तसेच विद्वान लोक शरीर, आत्मा, बल यांचे रक्षण करतात व दीर्घायु करून सर्वांना आनंद देतात. त्यांच्या रक्षणाशिवाय कोणीही चक्रवर्ती राजा बनण्यायोग्य होत नाही. त्यासाठी सदैव त्यांचा सत्कार करावा. ॥ ४ ॥